मन की बातें
ब्र.कु. सूर्य
(सेवा: नेपाल )(बी के)
प्रश्नः बाबा ने कहा बच्चे तुम्हें मन को जीतना है, परंतु मन को जीतना तो असंभव सा ही है। बड़ी तीव्र गति मन की है। यह काम कठिन है परंतु इसे सरल बनाना चाहते हैं…कोई उपाय बताएं।
उत्तरः मन की गति सचमुच ही बड़ी चंचल है। साधना से ही इसे साधा जा सकता है। इसकी घोड़े समान चंचलता को शक्तियों की लगाम से ही वश में किया जा सकता है। कुछ अभ्यास इस प्रकार कर सकते हैं-
कल्प पहले मैंने ही मन को जीता है। इसलिए ही यह यादगार बना कि मन जीते जगत जीत। इसे बार-बार स्मृति में लायें। मन को जीतने वाले ही स्वराज्य अधिकारी हैं। वे ही विश्व राज्याधिकारी बनते हैं। शक्तियों की लगाम से मन को कंट्रोल करो।
इसके लिए बार-बार अभ्यास करें कि मैं मास्टर सर्वशक्तिमान हूँ। सभी परमात्म शक्तियाँ मेरे पास हैं। मैं मन का मालिक हूँ। भृकुटि सिंहासन पर विराजमान हूँ। तो जैसा हम बार-बार स्वयं को मानेंगे, वैसा ही बन जायेंगे। मन को साधने हेतु तपस्या तो करनी ही पड़ेगी।
दो तरह के अभ्यास से यदि हम मन की गति को धीमा करें तो मन को ब्रेक लगाना सरल होगा, वे दो साधनाएं हैं-
1. पाँच स्वरूपों की साधना,
2. स्वमान की साधना। यूं तो इन्हें अत्यधिक करना चाहिए परंतु अमृतवेले के अतिरिक्त सारे दिन में तीन बार बैठकर पंद्रह-पंद्रह मिनट ये साधनाएं करें। इससे मन आनंदित होगा व शांत होगा। जिस स्वरूप को स्मृति में लायें, उसके बारे में चिंतन करें व उसी स्वरूप में देखें। मन-जीत का अर्थ ही है कि हम जिस स्वरूप पर जितना समय स्थित होना चाहें, सहज ही हो सकें। मन भटके नहीं। जिन्हें ये महान प्राप्ति करनी है, उन्हें व्यर्थ सुनने, देखने, बोलने पर अंकुश लगाना होगा, अपनी पवित्रता बढ़ानी होगी व अंतर्मुखी बन सच्चे दिल से साधना करनी होगी।